Book Title: Varddhaman
Author(s): Anup Mahakavi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 119
________________ वर्द्धमान ( १२४ ) "चला-चला बाण स्व-ब्रह्मचर्य के अभर्तृका' काम-वधू बना दिया अहो । कृपा रचक की न पाप पै कुमार | ऐसे करुणानिधान हो! ( १२५ ) "सदैव आशा रख मोक्ष-प्राप्ति की हुये यशस्वी 'अभिलाष-शून्य हो तुरन्त त्यागा जब वंश-बधु, तो कुमार | कैसे तुम विश्व-बंधु हो । ( १२६ ) "विहाय भोगावलि सर्प-भोग-सी निपीत-पीयूष-विशुद्ध-ज्ञान हो, प्रभो ! वताये यह जाइए हमें, व्रती | वनें प्रोपध के कि सत्य है।" ( १२७ ) प्रशान्त . बैठे दृढः ग्राव-मूर्ति-से नितान्त ही निश्चल-अग ध्यान में, उसी घडी ज्ञान हुआ कुमार को अवश्य कैवल्य-अवाप्ति ध्येय है। 'विधवा । 'वशके भाई लोग । 'फन । 'प्रत विशेष ।

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