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वर्तमान
( १६४ ) सरोज-अतर्गत मजु वारि ले स-मत्र ज्यो ही छिड़का रतीश ने, यतीन्द्र ने लोचन खोल के लखा समक्ष कामेश्वर पुष्प-चाप को ।
( १६५ ) ललाट मे दीप्ति प्रशसनीय थी; मुखान्न में सुस्मिति, चाप पाणि में, मनोज्ञ मौर्वी जिसमें मिलिन्द की कटाक्ष-बाणावलि-युक्त , सोहती।
( १६६ ) लसा शिरोभूषण चद्रकान्त का, वसत-शोभा-मय अग-राग था, विलोचनो मे विजयाभिरामता प्रतीत थी श्याम-सरोरुहाक्ष' के।
( १६७ ) रतीश वोला, "अव मै प्रसन्न हूँ, अभेद्य विश्वास हुआ मुझे कि तू विनष्ट-कर्मास्रव सर्वथा तथा अछेद्य सगी शुभ शुक्ल ध्यान का।
शकर।