________________
४३२
वर्द्धमान
( ११६ ) वने सभी सस्तुति-लीन यो तभी मनुष्य बोले कल कोटि कठ से "प्रभो। तुम्हारी जय हो, तुम्ही, विभो । धरित्रि-गामी' परमात्म-रूप हो।
( ११७ ) "मदादि-शत्रुजय हो, जिनेन्द्र हो, गुणाढ्य, रत्नाकर हो, सुरेन्द्र हो, प्रभो । जगत्ताप-प्रशात-कारिणी त्वदीय दीक्षा जन-रक्षिका बने ।
( ११८ ) "नमोस्तु ते, देह-सुखाति-निस्पृही नमोस्तु ते मोक्ष-रमार्ध-विग्रही', नमोस्तु ते हे अपरिग्रही,' प्रभो । नमोस्तु ते भक्त-अनुग्रही, विभो ।
( ११९ ) "अहो ! अलकार विहाय रत्न के अनूप-रत्न-त्रय-भूपिताग हो, तजे हुये अवर अग-अग से, दिगवराकार विकार-शून्य हो।
'पृथ्वी पर चलने वाले । मोक्ष-लक्ष्मी के पति । 'प्रसग्री ।