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पन्द्रहवाँ सर्ग
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( ४० ) रहे कई जीवन भूमि-पाल वे पुनश्च त्यागी निज देह मन्यु मे; अत. हुये कर्म-विपाक से तभी प्रचड पंचानन उच्च अद्रि पै।
( ४१ ) पुन. हुआ ध्यान उन्हे कि पाप से महान हिंसा-मय कर्म से तथा मरे, हुये वीर पुन मृगेन्द्र ही समुच्च जम्बूमय सिद्ध-कूट पै ।
( ४२ ) सुतीक्ष्ण थे दत, कराल मौलि से मराल खाते वह एकदा मिले, मुनीन्द्र मृत्युंजय को वनान्त मे; अत उन्हे शिक्षण साधु ने दिया -
( ४३ ) "मृगेन्द्र ! क्या तू निज पूर्व-जन्म मे त्रिपिष्ठ नारायण नाम भूप था ? समस्त भोगे भव-भोग, तृप्त हो, व्यतीत सारे दिन सौख्य से किये।
'शोध ।