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वर्द्धमान
( २८ ) मनुष्य वालारुण-सा उगा, जगी पयोज' नेत्रा-सरसी-प्रसन्नता ; प्रगल्भता प्राप्त हुआ कि आ गयी सरोज-संध्यारुण मे विपण्णता।
( २९ ) मनुष्य जीना बहु काल चाहता, न वृद्ध होना वह याचता कभी, गयी, न आयी युवती' दशा वही, न आ गयी, है जरठा दगा वही ।
(३०) न देह होती लकुटावलविता, न ज्योति अस्पष्ट अदीर्घ नेय में, न हास्य में कठितता विराजती, न प्राप्त होती यदि वृद्धता हमे ।
(३१) न आह होती नर की गभीर को, फराह मे भी कटना न व्यापती, न देह को पर्जन्ता व्यमोहनी', न प्राप्त होता स्थविन्य जीव गे।