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वर्द्धमान
( २८ ) मनुष्य यो ही निज भाव-कर्पटी' स-तर्क होके बुनता अजस्त्र है, विचार का ही करघा बना हुआ, लखो, रही है नुन चातुरी-तुरी।
( २९ ) विचार जो जागृत एकदा हुये, पुनश्च सोना वह जानते नहीं; प्रकागते विद्युत-वेग से जभी प्रदीप्त होती मति-रोदसी सदा ।
( ३० ) विहाय सीमा सव देश-काल की विचार-संचार स्वतंत्र ज्यो हुआ, कि भूमि भी है फिर भासती हमे पवित्र-सी पुण्य-निवास-सी महा।
निमग्न यो गढ़ विचार में सुची धरित्रि को अवर को विलोक्ते वित्रारते थे निज कार्य-योजना, प्रगान्ति वाह्यान्तर वर्तमान थी।
'चादर । भूमि-याकाश के बीच का भाग। 'प्रदर-बाहर।