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वर्द्धमान
कुमार-मस्तिप्क-सुमेरु-शीर्ष से विलोकते मानस-वीचि-भंगिमा विचार के अशु' प्रफुल्लता-भरे खिला रहे थे मन-पुडरीक यो।
( ३७ ) सुषुप्ति मे निर्जर' ज्यो कभी-कभी सु-स्वप्न देते शुभ आत्म-बोध के, विचार-कटस्थ कुमार-चित्त मे प्ररोहते आत्मिक भव्य भाव थे।
( ३८ ) . उठे अकस्मात विचार चित्त में निशादि में स्वच्छ निगान्त-स्वप्न-से, जिनेन्द्र-आत्मा ढक तथ्य से गयी यथा जल-प्लावन से अरण्य-भू ।
( ३९ ) परन्तु आयी ध्वनि ढोल झाँझ की विपाण-मजीर-मदग-चग की, विवाह से आ वर लौट ग्राम मे स-मोद आया नृप-द्वार भेट को।
किरण । देवता।