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वर्द्धमान
( १०० ) पिकी! तुम्हारी यह गीति शाश्वती सुनी गयी संतत राव-रंक से, अत मुझे दो वह तान, जो सदा मुदा सुनी जाय जिनेन्द्र-भक्त से ।
( १०१ ) पिकी ! तुम्हारे स्वर जो मनुष्य मे प्रसन्नता है भरते दिवौकसी' प्रबुद्ध नक्षत्र प्रकाश से हुये सरस्वती के मृदु बीन-राग से।
( १०२ ) प्रसन्न प्रत्येक पलाग वृक्ष का, प्रवुद्ध प्रत्येक तरंग नीर की, वन-प्रिये ! मत्त कुर्क से हुये कुमार-हृत्तन्त्र मधु-प्रभात में।
( १०३ ) अनूप आयोजन स्वीय व्याह का पडे-पडे सोच रहे कुमार थे, कि पूर्व में ब्रह्म-मुहुर्त की विपा स-हर्प आयी उदयाद्रि-शृंगपै ।
देवी। वसन्त ।