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बारहवाँ सर्ग
( ९६ ) धरित्रि की भी करुणामयी गिरा हुई अभिव्यक्त पिकी-निनाद से, चतुर्दिशा शब्द समीर ले चला, समा गयी जागृति भूमि-लोक मे।
( ९७ ) प्रभात मे कोकिल-कट-व्याज से वसन्त के पादप कुजने . लगे, अनूप अध्यात्म-सगीत काकली' उडेलते थे प्रति कर्ण-कुंज मे ।
( ९८ ) निसर्ग-आत्मा बन कुज-कोकिला विवाह-सगीत अलापने लगी। प्रफुल्ल शाखी पर मजरी हुई खिली बनो मे कलिका गुलाब की।
( ९९ ) कि कोकिलाएं रत-काकलीक' है कि लीन केका-रव मे मयूरियाँ, कि वप्र-घाटी-धुनि'-अद्रि-व्योम में विवाह-संवाद-प्रसार हो रहा ।
'कोकिला की ध्वनि । गायन-लग्न । 'नदी।
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