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दर्द्धमान
( १०० ) स्व-धर्म चिन्तामणि-कल्पवृक्ष है, स्व-धर्म संपूजित कामधेनु भी, स्व-धर्म ही भू-गत स्वर्गलोक मे, स्व-धर्म ही श्रेय, विधर्म हेय है।
( १०१ ) अत: करो पालन नित्य धर्म का, पदान्ज-प्रक्षालन सत्य-धर्म का, न प्राप्त होती जिसके बिना कभी मनुष्य को केवल-ज्ञान-कल्पना ।
[द्रुतविलंबित]
( १०२ ) हृदय-अंबुधि को जिनराज के अति तरगित-सा करता हुआ विरति-पोषक वादग - भावनानिचय' निश्चय ही उठने लगा।
अब महान प्रमत्त, गजेन्द्र का दृढ़ अलान हुआ ब्लय', देखिए, चल न दे यह कानन को कही रह गया ब्वरोव न अंत में।
समूह । 'वधन । 'टोला ।