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ग्यारहवाँ सर्ग
( ८८ ) हटी धरित्री युग-नेत्र से जभी, सुदृश्य आया पर-लोक का तभी, संगीत स्वर्गीय उसे सुना पड़ा, उड़ा जभी मानव मृत्यु-पक्ष पै ।
( ९९ ) यही महा नीद, जिसे न तोड़ती धरित्रि की घोर विपत्ति भी कभी, यही निशा है, जिसको न नाशती प्रभात की दीप्ति किसी प्रकार से ।
( ९० ) न मृत्यु से है मरना अ-वीरता न मृत्यु से है डरना प्रवीरता, न मृत्यु से उत्तम अन्य मित्र है, जिसे न आता मरना, मरे न क्यो ?
( ९१ ) विचारणीया जग-व्यापिनी दशा, यही सभी से परिचिन्तनीय है, कि मानवो का अभिशाप है यही डरे, मरे, आगम देख मृत्यु का।