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वर्द्धमान
( २० ) चला बँधे हाथ मनुप्य विश्व को, विता दिया जीवन चार साँस ले, चला खुले हाथ जभी श्मशान को, खुला सभी जीवन का रहस्य भी।)
( २१ ) कभी-कभी अतिम वस्त्र' को उठा जभी बिलोका मुख देह-शेप का, लखा जरा-जीर्ण शरीर प्रेत का, गया तिरस्कार किया स्व-वधु से।
( २२ ) पडी हुयी है कुछ श्वेत अस्थियां दिनान्त मे मिल जो विगसती। विचार मेरे यक में गये, तया अजन्त्र देती यह ठोकरे उन्हें ।
प्रभात की पूपण-रदिमयों यहां मदा गिगती कछ बन्द ओग से, परन्तु चो भम्म विलोपनी उन्हें अवष्ट होने पर भम्ममाता ।