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ग्यारहवाँ सर्ग
( ३२ ) मनुष्य चाहे जितना सुखी रहे, अनन्त चाहे उसका प्रमोद हो, समाप्त आशा उसकी हुई जभी, ज्वरा' तभी आकर कट दाबती।
( ३३ ) चतुर्दिशा मे धुंधला प्रकाश हो, प्रलम्ब छाया गिर भूमि मे पडे, थकान हो, निर्बलता महान हो, विचार देखो, तब मृत्यु आ गयी।
( ३४ ) तरंगिता काल-नदी बही तथा अनन्त-धामाम्बुधि' पास आ गया, बचा सका, हा! तृण भी न दड का मनुष्य डूबा सहसा भवाब्धि मे।
( ३५ ) कि जर्जरा जीवन की तरी चली तरंग-सपूरित काल-सिधु मे, थपेड कमस्रिव-नीर की लगी तुरन्त डूबी वह मृत्यु-घाट मे।
'मृत्यु । 'अनन्त तेज का समुद्र अथवा अनन्त स्थानवाला समुद्र