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वर्द्धमान
( ८४ ) पयस्य टुटी शिविरस्थली मही, स-सैन्य आये नप के समूह भी, स्के यहाँ केवल एक रात्रि ही विलोक सूर्योदय वे चले गये।
( ८५ ) मनुष्य का जीवन एक पुष्प है, प्रफुल्ल होता यह है प्रभात में, परन्तु छाया लख सांध्य काल की विकीर्ण' होके गिरता दिनान्त में।
( ८६ ) मनुप्य का जीवन रंग-भूमि है, जहाँ दिखाने सब पात्र खेल है, जमी हिलाया कर मूत्र-बार ने हुआ पटाक्षेप तुरन्त मृत्यु का।
( ८७ ) निसर्ग ने दिव्य विभनि जीव को प्रदान की जीवन की अदीपंता, परन्तु जो जीवन मृत्यु ने दिया न-दीघ है, गायत है, समन्न है।
"दियनिता