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वर्द्धमान
( १२ ) कही-कही मौक्तिक-सी उडु-प्रभा खुले दृगो से अवलोकती हुई बनी वशीभूत-विराग-भावना अहो । नदी-अक-निमज्जिता हुई।
( १३ ) कि काटती कानन के तमिस्र को, कि पाटती स्वर्णिम रश्मि तीर मे, तरग-मालाऽऽकुलिता तरगिणी वटा रही क्षत्रिय-कुड की प्रभा।
वहीं चली जा ऋजु-बालिके । प्रिये । वढी चली जा सहसा पयोधिगे । प्रवाह तेरा कमनीय कान्त है, समीप तेरा बहुधा प्रशान्त है।
( १५ ) अये । तुम्हारे नटप दिनान्त में प्रिये ! नविता-विहगी उटी कभी, न घूक आये उपार' गमि में, न तीर जागा भय प्रात-गाल में ।
'उन्ट । 'पारः ।