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दसवां सर्ग
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( १६ ) समीप तेरे सरि | ग्रीष्म मे कभी प्रसून से शोभित भूमि-अक मे, विचारते जीवन के रहस्य को शयान' होते सुख से कुमार है ।
(१७ ) निदाघ मे तापित तीव्र अशु से करी' यहाँ आ अवगाहते सदा, अतीव सक्षुब्ध प्रसारती प्रभा पयस्विनी - तुग -तरग - भगिमा ।
( १८ ) कभी-कभी पूर्ण-प्रकाश चद्र का निशा-समुल्लास' बिखेरता हुआ, कुमार के चिंतन-शील चित्त मे प्रमोद प्यारा भरता अतीव था।
( १९ ) अभी पुरी-मदिर-वाद्य प्रात मे निनादिता थे करते सभी दिशा, अवश्य आवतिनि-अक-बीचि मे अभूरि आघात प्रचारते रहे।
'लेटे हुये । 'हाथी। 'पानद । 'नदी।
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