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नवा सर्ग
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( ६४ ) "विलोकता पूर्ण शशांक व्योम को अनभ्र'जो, नीलिम जो, प्रशात जो, प्रकाशता दीप्त दिनेश भूमि को प्रबुद्ध जो, सुन्दर जो, प्रसन्न जो।
( ६५ ) "परन्तु भू से, नभ से, दिगन्त से, अहार्य से, कानन से, चतुष्क' से, प्रभूत कोई सुषमा शनै शनैः चली गयी-सी प्रतिभात हो रही ।
"स-मोद गाते पिक आन-वृक्ष पै मयूर आनदित नृत्य-लीन है, प्रमोद सर्वत्र विराजमान है, परन्तु मेरा मन दुःख-पूर्ण है।
( ६७ ) "प्रपात होता जल का महीध्र' से, कदापि मेरे दुख से न रुह है, वितु का नाद हुआ वनान्त में धरित्रि आमोद-प्रपूर्ण हो रही ।
विना बादल का। वेन । 'पर्वत । 'हायो।
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