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पाँचवाँ सर्ग
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( २४ ) त्रिलोक के मोहक अधकार को सदैव, नित्य-प्रति, खा रहा शशी, इसीलिए उज्ज्वल-देह-कुक्षि' मे समूढ अधतम है, विलोकिये ।
( २५ ) कि प्रेम से तामस-केश-पाश को मरीचि की अगुलि से हटा-हटा, विलोकिये, सपुटिताब्ज-लोचना निशा-वधू का मुख चूमता शशी।
( २६ ) विलासिनी-आनन कुज-कुज मे विलोकता है हँसता हुआ शशी, प्रसारता है कर जाल-जाल में मनोज्ञता की वह भीख मांगता ।
( २७ ) महीध' कैलाश हुये समस्त है सभी पलाशी' सित-आतपत्र' है, समुद्र सारे पय-सिधु से लसे, कु-पक भी है दधि-तुल्य राजता ।
कोख । पर्वत । 'वृक्ष । 'छतरी।