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वर्द्धमान
( ७६ ) विपचि | तेरे तन' एक तार ने हिला दिया राग-विहीन गर्भ भी, यही प्रशसा भवदीय न्यून क्या कि जो पुन लीन हुई स्व-राग मे ।
( ७७ ) न देव होते अभिभत क्यो, शुभे । संगीत देवालय-योग्य वस्तु है, न युक्त संगीत-प्रभाव से हने कुरंग को ब्याध, अमाप पाप है ।
(७८ ) लिखा गया दिव्य सँगीत सर्वदा दिगंत-पृष्ठो पर नाक-लोक के; कहा गया है उस शब्द में कि जो प्रसिद्ध भाषा सुमना-समाज की।
( ७९ ) समोद गावो अतएव, देवियो । निरतरास्वादन-दत्त-चित्त हूँ, विधान सौधर्म-महेन्द्र का यही, संगीत है दान महान ईग का।
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कोमल । अत्यन्त ! 'देवता ।