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सातवाँ सर्ग
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( ४० ) सहेलियो के सग मे यहाँ-वहाँ विलोकती थी त्रिशला प्रसन्न हो चली न डोली निज गर्भ-भार से प्रशान्त बैठी लखती सुदृश्य थी।
( ४१ ) . समीप ही एक गुलाब-वृक्ष था, प्रसून फले जिसमे अनेक थे; नपालिका-स्वागत-हेतु प्रेम से प्रसारता था अपनी सुगंध जो।
( ४२ ) समीर की एक तरग ने कहा, "समीप उत्फुल्ल गुलाब-वृक्ष है" मिलिन्द के मंद निनाद ने कहा, "यही कही पास गुलाब-पाश' है।"
( ४३ ) न पखड़ी शाश्वत' है गुलाब की, दशान है केसर की सनातनी, परन्तु तो भी इसकी सुगध मे चिरतनी अस्थिरता अवश्य है।
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'गुलाब का जाल, झाड़ी। सनातनी