________________
१९४
वर्द्धमान
( ८४ ) अहो! तुम्हारे, सखियो। सँगीत से प्रसन्न आत्मा मम हो रही मुदा, ध-लोक-गामी रथ पै सवार-सी जिनेन्द्र-मार्गाभिमुखी बनी अभी।
( ८५ ) सुनी तुम्हारी मृदु गीतिका जभी पयोद आये घिर प्राच्य व्योम में, अहो | तुम्हारे पट से सुरग ले उगा, हुआ सुन्दरि ! इन्द्र-चाप है ।
(८६ ) हुई प्रतीची अनुरजिता, तथा प्रसन्न होता रवि अस्तमान है, विमुग्ध प्राची-धन मे उगा हुआ सुरेन्द्र-कोदड' विराजमान है।
( ८७ ) नही रंगो से यह है बना हुआ न स्वर्ण से, पारद से न तान्न से, स-जीव कोई घन तत्त्व है कि जो प्रशस्त स्वर्गीय महत्त्व-युक्त है।
पूर्वीय ।
धनुष ।