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छठा सर्ग
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( ८० ) विपचिके | धात्विक शब्द तावकी' विमोहते जीवित-भृग-मंडली, मनोरमा है ध्वनि भासती मुझे सुकोमला नाद-कला अकथ्य है।
( ८१ ) सरस्वती लेकर बीन स्वर्ग में निसर्ग के आदिम-काल मे पुरा लगी जभी सुन्दर गान छेड़ने हुई स्वयमू-श्रुति अष्ट-श्रोत्र की।
( ८२ ) निनाद होता अति शुष्क पर्ण मे, अजस्र गाती सरि-धार गीति है; मनुष्य के हो यदि कान, तो सुने सँगीत व्यापा वन-अद्रि-व्योम मे।
( ८३ ) सँगीत आत्मा त्रसरेणु'-व्यापिनी त्रिलोक-स्रष्टा विभु से रची गयी; प्रसिद्ध भू मे श्रुतियां न चार ही वरच द्वाविशति है, अनन्त है।
'तेरे । ब्रह्मा। 'वह कण जो वायु में अदृष्ट उडते रहते है। 'वाईस ।
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