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वर्द्धमान
( २८ ) शशाक प्रत्येक निशान्तराल' में स्वकीय गाथा कहता धरित्रि से, कि जन्म कैसे इस पिंड का हुआ, कि कीति कैसे बढती सु-कर्म से ।
( २९ ) प्रपूर्ण राकेश नमो-निकुज से विकीर्णर जोत्स्ना करता समतत , समीर मानो गति से शने शनैः प्रगाढ निद्रावश हो रहा, अहो
( ३० ) शशाक-जोत्स्ना चलती सुमेरु से महीरुहो से छनती धरित्रि में, नदी बहाती तल मे प्रकाश की, वढा रही प्रेम निशा ललाम से ।
( ३१ ) उगा नही चद्र, समूढ प्रेम है, न चाँदनी, केवल प्रेम-भावना, न ऋक्ष है, उज्वल प्रेम-पात्र है, अत हुआ स्नेह-प्रचार विश्व मे ।
'रात्रि के मध्य का समय । 'प्रसरित ।