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छठा सर्ग
( १६ ) तुषार पै वज्र-कपाट बंद हो, निवार दे पुष्ट छते समीर को, हिमांशु वातायन से न आ सके, प्रयत्न-सा था त्रिशला-निवेश मे।
( १७ ) प्रभात मे पादप-शृग पै गिरे, बने रहे, पुष्कल' ओस-बुद यो, रहे दिखाते निज सप्त-रग वे नरेन्द्र-जाया जवलौ जगे नही।
( १८ ) प्रसून सोते हिम-खड के तले वसन्त के स्वप्न विलोकते हुये, पड़ी प्रसुप्ता त्रिशला-निवेश में लिए हुये एक रहस्य गर्भ मे ।
( १९) अतद्र-नि श्वास प्रभात जानके तुषार के शायक छोड़ने लगी, विदारती है हृद' शीत-रात्रि का निशान्त-कारी रवि की शरावली।
'अधिक सस्या में। हृदय ।
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