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রদান
अमेत वेणी' बन मागणीनमा निनन्य ने मना नही निंदूर-जिहा अपनी पमाली मुपेन्दु-पीयप-ग्मावहिनी' ।
न प्टि थी प्राकृत अयोनि' की मनोरमा श्री त्रिगन्ना मुलोचना, स्वरूप की लपति और हो बनी अनन्य-चातव्यं-गरपा-मयी।
( ११७ ) अमूर्त, तो भी, कटि मूर्त तत्र थी, अगक, तो भी, तरला सु-दृष्टि थी, अहो, बलकार-विहीन अग की महा मनोहारिणि मगना लसी।
( ११८ ) यथा-यथा भूप धंसे हदन्धि म तया-तथा कज-उरोज भी वढे, यथा-यथा अब्ज-पयोज' यो हंसे तथा तथा नेत्र-सरोज भी वढे ।
'चोटी। 'चाटनेवाली। 'ब्रह्मा । 'तार। 'चद्रमामें उत्पन्न कमल।