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दूसरा सर्ग
( ९४ ) ललाट मे आगत स्वेद-बन्द भी नरेश हाथो परिहारते रहे, हटा-हटा आनन से अजस्र ही मिलिन्द की भीड निवारते रहे।
मृगांक-से आनन पै पड़ी हुई पयोद-माला-सम केश-राशि को सहेजते' भूपति बार-बार यो स-जभ शैथिल्य-समेत सो गये।
[ द्रुतविलंबित ]
( ९६ ) मनुज जागृति मे रत-धर्म है, विगत-कर्म तथैव सुषुप्ति' में, यदि कही सुख-स्वप्न प्रतीत हो वह भविष्य-विधान-समर्थ है ।
'सम्हालते। जम्हाई लेकर । निद्रा। 'निर्माण ।