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तीसरा सर्ग
( ४८ ) मरीचियाँ उत्थित सूर्य-देव की बना रही थी अनुरजिता' धरा, समस्त कासार, सरोज-पुज' से ढके हुये पीत पराग से, लसे ।
( ४९ ) महान आश्चर्य हुआ उन्हे जभी प्रफुल्ल देखे सर में सरोज, जो निशा तथा वासर मे पृथक्-पृथक् प्रकाशते है, पर सग-सग है ।
( ५० ) पुन वही श्वेत गजेन्द्र पूर्व मे लखा गया जो त्रिशला ललाम से सरोज-सा, भृग-समान व्योम में, उठा बृहत्काय, बना गिरीन्द्र-सा ।
( ५१ ) पुनश्च हो सो लघु अतरिक्ष मे मिलिन्द-सा आ त्रिशला-समीप ही नृपेन्द्र-जाया-मुख-कज मे फंसा यथैव भावी सुत-सूचना , शुभा ।
प्रसन्न । होनेवाले।