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चौथा सर्ग
( ४७ ) "अत उठो, हे त्रिशले | जगो-जगो, विलासिनी-मंडल-मान-मदिनी ! प्रबुद्ध हो, सप्रति शुद्ध हो, शुभे! कुरंग-नेत्रे ! ललिते । मनोरमे !
( ४८ ) "प्रभात मे श्रावक-श्राविका सभी अजस्र-सामायिक-दत्त-चित्त हो, प्रसक्त हो कर्म-अरण्य-होम' मे, सदा उठाते ध्रुव धर्म-धूम है।
( ४९ ) "अनेक सपूजित-पच-देवता प्रवृत्त होते व्रत-जाप मे मुदा; परन्तु जो चित्त-निरोध-लग्न, वे निलीन होते सुख-सिधु ध्यान में।
"तथैव जो धीर विमुक्ति-प्राप्ति के लिए, न लाते ममता शरीर पै, प्रवृत्त व्युत्सर्ग-तपादि में वही विनाशते कर्म, विमोक्ष साधते ।
'जलाना । त्याग।