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दूसरा सर्ग
[ द्रुत विलंबित ]
( ३१ ) जिस प्रकार पयोधर अक मे मचलती तडिता अनुरक्त हो, । उस प्रकार समीप नृपाल के विलसती त्रिशला अति मुग्ध थी।
[वंशस्थ ]
( ३२ ) महीप बोले प्रिय चाटु-उक्ति' से "प्रिये ! धनुर्धारिणि तू विशिष्ट है, कलंब-ज्या-हीन शरास' से, अहो ! बना रही है मन विद्ध मामकी ।
( ३३ ) "सु-दृष्टि कृष्णार्जुन से प्रसक्त है, तथापि जाती यह कर्ण-पास ही, प्रिये ! नही विश्वसनीय चाल है। विलोचनो की चल-चित्त-वेधिनी ।
'खुशामद। वाण। धनुप । काला और सफेद प्रयवा नाम विशेष। "कान या नाम विशेट्र।