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"प्रत चलो सप्रति दिव्य-लोकमेंनिसर्ग-श्रत पुरमें-- जहाँ प्रभो ! समस्त देवासुर-मौलि-लालिता विराजिता है वह प्रादि-देवता ।
(५०२-४२ )
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मनुष्यके सुन्दर रग-रूप में जिनेन्द्र - श्रात्मा श्रलकेश-सग हो हुई समासन्न, तुरन्त व्योमको विशाल धाराट उडे विमान ले । (५०४-४५)
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जहाँ न पानी पवनानलादिका प्रवेश होता महिका न व्योमका नितान्त एकान्त - निवासमें कहीं जिनेन्द्र थे, और अनन्त शक्ति थी । (५१२ - ७८ )
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पवित्र एकान्त 1 त्वदीय कमें, त्वदीय छाया-मय मजु कुजमें, मुनीन्द्र, योगीन्द्र, किसे न प्रतमें सदैव देवी सहचारिणी मिली ।
(५१२-७९)
"खडा रहा स्यदन एक याम ही जिनेन्द्र लौटे संग दिव्यशक्तिके