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प्रकाशके अन्दरमें छिपे हुए सुव्यक्ति दोनो द्रुत एक हो गए"
(५१३-८०) कविने इस प्रकार भगवानके विवाहका आध्यात्मिक रूप दिया है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बर थाम्नायकी मान्यताप्रोमे सामञ्जस्य बिठाया है।
इसी प्रकार कविने भगवानके दिगम्बरत्त्वके विपयमे भी समन्वय किया है। उन्होने माना है कि दीक्षाके समय भगवान निम्रन्थ-निर्वस्त्र हो गए थे, किन्तु देव-दूष्य समीप था --
"अहो अलकार विहाय रत्नके अनूप रत्ल-त्रय-भूषिताग हो तजे हुए अबर अंग-अंगसे दिगम्बराकार विकार शून्य हो । समीप ही जो पट देव-दूष्य है नितान्त श्वेताम्बर-सा बना रहा अप्रय, निर्द्वन्द्व महान संयमी, बने हुए हो जिन-धर्मके ध्वजी।
(४३२-४३३ पृ० ११९-१२०) 'वर्द्धमान' के पाठक यदि ध्यानसे ग्रथका अध्ययन करेगे तो पाएंगे कि कविने दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नायमें ही नही, जैन धर्म और ब्राह्मण धर्ममें भी सामञ्जस्य बिठानेका प्रयत्न किया है। कवि स्वयम् ब्राह्मण हैं। उन्होने अपनी ब्राह्मणत्वको मान्यताप्रोको भी इस काव्यमे लानेका प्रयत्न किया है। वास्तवमें भगवान महावीरके जीवनमें ही सच्चे ब्राह्मणत्वको आदरका स्थान प्राप्त है। दिगम्बर आम्नायानुसार इस वातका कम महत्व नही कि केवल-ज्ञान प्राप्त होन पर ६६ दिन तक भगवानका उपदेश न हो सका क्योकि उनकी वाणीको हृदय-ग्राहय बना कर जन-जनमे प्रचार करनेकी क्षमता रखने वाला व्यक्ति,