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जिसे शास्त्रीय भाषामें 'गणघर' कहते है, प्राप्त न हो पाया और जब यह महाज्ञानी पुरूप प्राप्त हुआ तो वह अपने समयका प्रकाण्ड विद्वान इन्द्रभूति गौतम था जो जन्म और जातिसे ब्राह्मण था। भगवानके उपदेशसे प्रभावित होने वाले और उनके धर्ममे दीक्षित होने वाले प्रारभिक व्यक्तियोमें ब्राह्मणोकी ही बहुलता थी। ___ यद्यपि भगवान महावीरकी साधना और उपदेगका एक प्रधान लक्ष्य वैदिकयज्ञोकी हिंसावृत्तिको रोकना, और वैदिक क्रियाकाडके अर्थहीन और स्वार्यपूर्ण वन्वनोंसे सर्व-सामान्यका उद्धार करना था, किन्तु वेदके जिन दार्शनिक अगोमें तत्कालीन विद्वानोको पूर्वापर विरोध प्रतीत होता था, उस विरोधका निराकरण भी भगवान्ने जैन-दर्शनके मूल-सिद्धान्तोंके आधार पर किया। वेदोंके दार्शनिक भागमें जहां पूर्व तीर्थकरो द्वारा प्रचारित श्रमण संस्कृतिकी विचारधारा ग्रहण की गई है, उसका निदर्शन उसी सस्कृतिके आधार पर किया जा सकता था।
ऊपर जिन इन्द्रभूति गणधरका उल्लेख किया है वह भगवानके प्रधान शिष्य उसी समय वने जब भगवानकी विवेचनासे उनका दार्शनिक सशय नष्ट हो गया। जनागमोमें इस तात्विक चर्चाका जो उल्लेख आया है उससे प्रतीत होता है कि इन्द्रभूति गौतमको आत्मा (पुरूप) के अस्तित्वमें शका थी। उसने वेदमें पढा था -
"विज्ञानधन एवतेभ्यो भूतेभ्य समुत्याय तान्येवान विनश्यति नप्रेत्य सज्ञास्ति। इन्द्रभूतिने इसका अर्थ समझा था
"विज्ञाधन अर्थात् चेतनापिंड, भूतपादों अर्थात् जल, पृथ्वी, अग्नि आदि भूत-समुदायत्ते उत्पन्न होकर उसी भूतसमुदायमें विनष्ट हो जाता है। प्रेत्य अर्थात् परलोकको कोई सजा नहीं-परलोक नामकी कोई वस्तु नहीं। ___और इन्द्रभूतिने वेदमें यह भी पढा था कि “स वै अयमात्मा ज्ञानमय"यह वही ज्ञानमय आत्मा है" । अत उसे शका थी कि विज्ञानधन वाली भूतिशस्तिको ही आत्मा माना जाए जो विनप्ट हो जाती है अथवा ज्ञानमय आत्माका अलग स्वतत्र अस्तिव माना जाए जिमका प्रवक्त्व ऋपिने स वै अयमात्मा