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"वहिन-सा जीवन मध्य-रात्रिके पड़ा रहा चंद्र-विहीन सिंघुर्मे । मिला न दिग्सूचक-यत्र सा जभी प्रिये ! तुम्हारा कर, मैं दुखी रहा।"
(१६०-८४) और त्रिशलाकी भाव-प्रतिध्वनि सुनाई पडती है -
"प्रकाशसे शून्य अपार व्योममें उड़ी, बनो प्राश्रित-एक-पक्ष' मै । मिला नहीं, नाथ ! द्वितीय पक्ष-सा जभी तुम्हारा कर मैं दुखी रही"
(१६०८५) इन सवादका धरातल इतना ऊँचा उठाया गया है कि एक स्थान पर यह अत्यन्त आध्यात्मिक हो गया है -
"प्रभो ! मुझे हो किस भाति चाहते ?" "ययव नि श्रेयस चाहते सुखी ।" "प्रिये । मुझे हो किस भाति चाहतो?" "ययंव साध्वी पद पार्श्वनायके ॥"
(१५८१७६) इस स्थान पर पहुंच कर सहसा ध्यान भाता है कि यहां पांचवे नगमे जो गज-दम्पति इतने ऊँचे उठकर प्रेमवार्तालाप कर न्हे है दूमरे ननमे भी तो वही दम्पति है जो भगवान्के जनक और जननी बनने वाले है। लाता है ने कविने दूसरे मर्ग में इन्हे केवल गज-दम्पतिक म्पने ही मान को निगो ननभिवका वर्णन किया है। यह यद्यपि मात्रामे गम है
मांग
नाव,
पव।