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।। श्री चमत्कारी पार्श्वनाथाय नमः ।। ।। प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वराय नमः ।।
वंदनीय-अवंदनीय ('सम्बोध प्रकरणम्' ग्रंथ, आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी की रचना है। इसमें देव, गूरु, सम्यक्त्व, श्रावकत्व आदि अनेक विषयों पर व्यवस्थित गाथा-बद्ध विवेचन किया गया है। इसके कुल ६२ पत्र हैं। यह अप्राप्य है। किंतु बाद में श्रीमेरुविजयजी गणि का मात्र अनुवाद प्रकाशित हुआ है। श्री हरिभद्रसूरिजी का समय विक्रमीय आठवीं शताब्दि माना जाता है। 'कुगुरु गुर्वाभास पार्श्वस्थादि स्वरूप' बताने वाला दूसरा अधिकार १७१ गाथाओं में पूरा हुआ है। इसमें इस विषय को बड़े विस्तार से उपस्थित करते हुए आचार्यश्री ने अपने समय की दशा का भी वर्णन किया है । यह विषय भी पाठकों के समझने योग्य है । यहां क्रमशः मूल के साथ अनुवाद उपस्थित किया जा रहा है-संपादक) अह सुगुरूणुवएसो निक्खेवाईहि चउप्पयारोवि।
नामाइविभेएहिं दव्वाइहिं तहा जाण ||१||
अब सुगुरु के उपदेश से नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, इन चार प्रकार के निक्षेप से गुरु जानना चाहिए ।।१।। केवलनामेण गुरू ठवणगुरू अक्खपडिमरूवेहिं ।
दव्वेण लिंगधारी भावे संजलकसाएहिं ||२||
केवल नाम से कहलाने वाले नामगुरु, अक्ष तथा प्रतिमादि रूप स्थापना गुरु, साधु का वेश धारण करने वाले द्रव्यगुरु और अनन्तानुबन्धी आदि कषाय की तीन चौकड़ी से रहित-संज्वलन
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