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इच्छुक होते हैं, ऐसे मार्गच्युत आचार्य ही भक्तों की गरज करते हैं । ऐसे शिथिलाचारी, उन्मार्ग गामी एवं धन लोभी आचार्य को सुविहित-उत्तम आचार वाले संत कब भाएंगे ? उनकी आत्मा, सुविहितों का हित नहीं चाहती । वे स्वयं सुसाधुओं के विरुद्ध मोर्चे लगाने के लिए अपने सुभट रूपी साधुओं और उपासकों से उन्हें सताने का प्रयत्न करते हैं। पम्पलेटों के द्वारा उन्हें बदनाम करने की प्रवृत्ति भी पूरजोश से प्रारंभ है । ऐसे आचार्य, पाखंडी (दंभी, ढोंगी) और कुशील-बुरे आचार वाले हैं।
इन्हें त्याग दो अगीयत्थकुसीलेहिं संगं तिविहेण वोसिरे । मोक्खमग्गम्मि मे विग्धं पहंमी तेणगं जहा ||९९||
- गच्छाचार पयना गाथा ४८ आयरियप्पमुहा य एयारिच्छा य हुंति जत्थ गणे । किंपागफलयसरिसो संजमकामीहिं मुत्तव्यो ||१ooll
अगीतार्थ एवं दुराचारी साधुओं के संसर्ग का त्याग मन, वचन और काया से करना चाहिए । क्योंकि जिस प्रकार मार्ग में लूटने वाले चोरों का साथ दुःखदायी होता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में ऐसे साधुओं का संसर्ग विघ्न रूप होता है ।।९९।।
जिस गच्छ में आचार्यादि साधु ऐसे हों, तो ऐसे गच्छ का संयमप्रिय साधुओं को, किंपाक फल के समान जानकर त्याग कर देना चाहिए ।।१०।।
आचार्य श्री कहते हैं कि पूर्वोक्त दुर्गुणों के स्वामी, चाहे आचार्य हो, गुरु हो या सामान्य साधु ही हो-कोई भी हो, उनका