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नमूने आगम में भी मिलते हैं ।
किन्तु आज के कुछ समझदार उपासक ऐसे भी हैं, जो संस्कृति घातकों के साथ सम्मान सूचक शब्दों का व्यवहार करने की सलाह देते हैं। उनकी ऐसी सलाह, चोरों का सम्मान करने जैसी है।
कई तो जानते समझते हुए भी धर्म-घातकों एवं दुराचारियों का वैसा ही सम्मान करते हैं, जैसा सुसाधुओं का करते हैं । यह स्थिति उनकी सत्वहीनता स्पष्ट कर रही है और यह बता रही है कि वे कितने दब्बु हैं। दुराचारियों की संगति से मर
जाना श्रेष्ठ वरं वाही वरं मच्चु, वरं दारिद्दसंगमो | वरं अरण्णे वासो य, मा. कुन्सीलाण संगमो ||१०१||
व्याधि-रोग से दुःखी होना अच्छा, मर जाना उत्तम है, दरिद्रता के संताप से संतप्त होना श्रेष्ठ है, गांव छोड़कर वन में रहना ठीक है । किन्तु कुशीलियों-दुराचारियों की संगति करनी अच्छी नहीं है-बहुत बुरी है ।।१०१।।
आचार्यश्री कहते हैं कि कुशीलियों-दुराचारियों की संगति करने से तो रोगी रहकर दुःख भोगना अच्छा है, मर जाना श्रेष्ठ है, दरिद्र-अभावग्रस्त रहना ठीक है और ग्राम नगर की सुविधा छोड़कर वनवास के कष्ट झेलना उत्तम है, किन्तु दुराचारियों की संगति करना अच्छा नहीं हैं, क्योंकि दुराचारियों की संगति से संयमी जीवन का नाश होता है ।
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