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होता रहे, उत्सूत्र प्रचार बेरोक टोक होता रहे और दुराचार की घटना होती रहे, फिर भी जिनेश्वर भगवान् के वंशज एवं उत्तरदायित्त्वपूर्ण स्थानासीन पदाधिकारी तथा अन्य साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, तटस्थ-दृष्टा की तरह देखते रहें और चुप्पी साधे रहें, तो यह स्थिति उनकी जिनेश्वर भगवान् और उनके धर्म के प्रति कर्त्तव्य पालन को एक चुनौती है । यह कैसे हो सकता है कि उपास्य की अवहेलना, उपासक चुपचाप देखता रहे ? कम से कम उन्हें ऐसे दूषित तत्त्वों के प्रति अपना सहयोग बंद करके उपासक वर्ग को सावधान तो करना ही चाहिए । जिससे विकार का अवरोध हो और अनजान लोग वैसे दूषित तत्त्वों से बचे रहें।
हम निर्बल होते हुए भी अपने धन, जमीन, जायदाद, प्रतिष्ठा और कुटुंबादि को बचाने के लिए दूसरों से लड़ते, झगड़ते और झंझट में पड़ते हैं, किन्तु अपने धर्म के लिए दूषित तत्त्वों से-धर्म की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाने वालों से, संबंध भी नहीं छोड़ सकते और अनजान धर्म बंधुओं को खतरे से सावधान भी नहीं कर सकते-यह हमारा कैसा धर्मात्मापन है ?
आचार्यश्री ने ठीक ही कहा है कि जो साध्वादि, जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा का भंग होता हुआ देखकर भी मध्यस्थ बने रहें और चुप्पी साध लें तथा धर्म पक्ष का सहायक नहीं बने, वह उस आज्ञाभंगादि पाप को बढ़ने और फैलने का अवसर देकर धर्म की क्षति करने वाला है। ऐसे व्यक्ति अपने व्रतों के प्रति भी उदासीन हैं।
तेसिं पि य सामण्णं भट्ट भट्ठवया य ते कुंति ।
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