________________
हैं । कोई पुस्तक प्रकाशन के लिए, कोई पत्रिका के प्रकाशन प्रचार और संचालन के लिए, कोई अध्यापक सेवक (विहार में सेवा करने वाला) और स्व मालिकी की पत्रिका को चलाने के लिए एवं पक्षपोषक पत्रकार से अपनी प्रशंसा और विपक्ष की निंदा के लिए और कोई औषधी आदि के लिए परिग्रह विषयक प्रपंच करते कराते हैं । कई संस्था के धन का हिसाब किताब देखते और गड़बड़ी मालूम होने पर चिंता करते हैं और अंत में उस घटना को दबाकर आगे बढ़ते हैं।
जो साधु परिग्रह रखने, रखाने और अनुमोदन विषयक कुछ भी क्रिया करते हैं, वे अपने महाव्रत को क्षति पहुँचाते हैं। आचार्यश्री कहते हैं कि ऐसे धन-रक्षकों का संयम भी भ्रष्ट है और साधुता भी भ्रष्ट है । वे भ्रष्टव्रती हैं ।
जो दानी उपासक, उनकी प्रेरणा से धन देता है, उस धन देने वाले का प्रभाव साधु पर भी पड़ता है।
यदि वह दाता कभी कुछ अकृत्य करे, तो वह दबा हुआ साधु उसे कुछ कह भी नहीं सकता । वह जानता है कि यदि मैंने इन्हें कुछ कहा, तो ये मेरे व्रत भंग के अकृत्य को प्रकट कर देगा और मेरी बदनामी होगी।
इसलिए वह कुछ कह भी नहीं सकता, उल्टा चापलूसी करता है।
यह सब भगवदाज्ञा का उल्लंघन है । जिनाज्ञा की विराधना साधारण पाप नहीं है । भगवान् की आज्ञा की किचित् विराधना भी अनंत संसार परिभ्रमण का कारण हो जाती है ।
130