Book Title: Vandaniya Avandaniya
Author(s): Nemichand Banthiya, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 161
________________ चला। उनको शिथिलाचारी दर्शाया । वथिव्व वायपुण्णी अतुक्करिसेण जहा तहा लवइ । ण वि सेवइ गीयत्थं वस्थिव्व अदंसणिज्जो सो || १५१ || वायु से भरी हुई वस्ति (मशक) के समान अपने उत्कर्ष (घमंड) के लिए यद्वा तद्वा बोलते रहते हैं । वे गीतार्थ की सेवा नहीं करते । ऐसे साधु वस्ति (गुदा) की तरह अदर्शनीय है । । १५१ । । आचार्यश्री ने उपरोक्त गाथा में उन स्वच्छन्दी घमंडी और लबार साधुओं के मुंह को वस्ति (अथवा बस्ति) = गुदा के समान बताया है। वास्तव में जो उत्तम और मंगलमय वेश धारण करके भी मन में दुर्गंध भरे हुए हैं, वे तो अदर्शनीय ही हैं। थद्धो णिव्विण्णाणो परिभवइ जिणमयं अयाणंतो । तिणमिव मण्णइ भुवणं न य पिच्छ किंचि अप्पसमं || १५२ || स्तब्ध-अकड़बाज-घमंड में चूर और निर्विज्ञानी ( सम्यग्ज्ञान से रहित ) ऐसा वह साधु, श्री जिन प्रवचन को नहीं जानता हुआ पराभव को प्राप्त होता है । फिर भी वह संसार को तृण के समान तुच्छ मानता है । वह अपने समान अन्य किसी को नहीं मानता ।।१५२।। इधर-उधर की व्यर्थ की बातें या जिनप्रवचन के बाहर की विद्या जानने वाले, निग्रंथ प्रवचन से अनभिज्ञ व्यक्तियों की गर्जना थोथी होती है । उन्हें कभी पराजय का अनुभव करना पड़ता है । बहुरूपिये जैसे बहुमन्नइ गिहिलोयं गिहिणो संजमसहित्ति भण्णंति । 143

Loading...

Page Navigation
1 ... 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172