Book Title: Vandaniya Avandaniya
Author(s): Nemichand Banthiya, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 165
________________ संवायं च हियाकंखी सव्वोवाएहिं वज्जए ||१६७|| निन्नव अभव्वगाणं जा किरिया मुद्धमोहसंजणिया । तारिसिया खलु किरिया छउमत्थाणं नियडियाणं ||१६८|| सुखशीलिए साधु को कृतिकर्म (विधि पूर्वक वंदना) करना और प्रशंसा करना, यह कर्म बंध का कारण है। इससे वे कुसाधु जिन-जिन प्रमाद स्थानों का सेवन करते हैं, उन-उन प्रमाद स्थानों को प्रोत्साहन मिलता है ।।१६६ ।। इस प्रकार समझकर हित-चिंतक जीव, कुशीलियों का संसर्ग, स्तवना (प्रशंसा) एवं सहवास का, सभी उपार्यों से त्याग करें ।।१६७।। मोहीजनों को मुग्ध करने वाली क्रिया तो निह्नव और अभव्य भी करते हैं और निश्चय ही ऐसी क्रिया मायावी छद्मस्थ साधुओं की है ।।१६८।। निरवज्जो खलु धम्मो, पण्णत्तो जिणवरेहिं इय वयणं । भासंता गृहंता तित्थयराईण विहिभत्तिं ||१६९|| अप्पमाईइ पवयणं हीलंता तच्चमग्गमलहंता | अण्णाणकट्ठरूवं दंसइ मूढाण जीवाणं ||१७०।। ते विय अदंसणिज्जा जिणपवयणबाहिरा विणिद्दिठ्ठा । मिच्छत्तदरिद्दजुया पाविठ्ठा सव्वनिक्किट्ठा ||१७१।। निश्चय ही जिनेश्वर भगवंत ने तो निरवद्य धर्म कहा है, इस प्रकार बोलते और (इस प्रकार बोलते हुए भी) तीर्थंकरों की विधिमार्ग वाली भक्ति का गोपन करते हैं ।।१६९।। __ वे अल्पमति से जिन प्रवचन की निंदा करते तथा तत्त्वमार्ग से वंचित रहते, मुग्ध-भोले जीवों को अज्ञान कष्ट दिखाते हैं (अज्ञान कष्ट में गिराते हैं) ।।१७०।। 147

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