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मूढउ लोक अयाण न बुज्झइ, कद्दमुकद्दमेण किम सुज्झइ ||
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उपदेश रत्नाकर २ अंश ७ तरंग.
दुःख युक्त खेती करके क्या घर भरा जायगा ? किसको
शिष्य ? किसको गुरु ? कहना । अज्ञान से युक्त मूढ़ लोकबोधित नहीं होते । कीचड़ से किच्चड़ क्या साफ होगा ?
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सप्पो इक्कं मरणं, कुगुरु अणंताणिकुणइ मरणाई |
तो वरि सप्पो गहिओ, मा कुगुरुसेवणं भद्दं ॥ उपदेश रत्नाकर २/६ सर्प से एक बार मृत्यु होती है और कुगुरु से अनंत जन्म मरण होते हैं अतः सर्प के सानिध्य से हानि कम, कुगुरु के सानिध्य से हानि अधिक । अतः कुगुरु का त्याग करना ।
केचिद् गुरवो मूल्येनैव सम्यक्त्वालोचनादि ददते, प्रतिष्ठादि वा कुर्वते । चिकित्सादि कृत्वा विद्याप्रागल्भ्यतच्चमत्कारादिश्चविविधमन्त्रयन्त्राद्यर्पणकार्मणवशीकरणादिलाभालाभादिनिमित्तशकुनमुहूर्त्तादि च प्रकाश्य दानादि गृहणन्ति विविधावर्ज्जनाभिर्वशीकुर्वन्ति च धर्म्माथिनोऽपि जनांस्तथा यथा नान्यान् सुविहितगुरुनप्याश्रयन्ति, प्रत्युत हसन्ति तांस्तदनुसारिणश्च ।। उपदेश रत्नाकर २ पेज. ५३ कितनेक गुरु मूल्य लेकर सम्यक्त्व उच्चरवाते है, आलोचनादि देते है और प्रतिष्ठा में भी रुपये लेकर प्रतिष्ठा करवाते है । चिकित्सा से, विद्या की चतुराई से चमत्कारादि विविध प्रकार के मंत्र तंत्रादि से, कार्मण वशीकरण से, लाभालाभ के निमित्त से,
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