Book Title: Vandaniya Avandaniya
Author(s): Nemichand Banthiya, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 166
________________ ऐसे साधु, दर्शन करने योग्य नहीं है, जिन प्रवचन से बाहर हैं, मिथ्यात्व रूपी दारिद्र्य से युक्त हैं, पापिष्ठ हैं और सबसे निकृष्ट-अधम हैं ।।१७१।। ॥ इति कुगुरु गुर्वाभास पार्श्वस्थादि स्वरूपाधिकार || उपरोक्त विवेचन 'संबोध प्रकरण' का दूसरा अधिकार है। इसके रचयिता आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी महाराज हैं । उनके समय के विषय में मतभेद है । कोई विक्रमीय छठी शताब्दि का उत्तरार्द्ध बताते हैं और कोई आठवीं शताब्दि का उत्तरार्द्ध । किन्तु यह तो निश्चित है कि उस समय साधुओं में शिथिलाचार बहुत ही बढ़ गया था और व्यापक हो गया था । आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने जब देखा कि शिथिलाचार चरम सीमा पर पहुँच चुका है, तो वे विचलित हो गये । उन्होंने उनका जोर शोर से विरोध किया। उनका विरोध अत्यंत तीव्र एवं उग्र था । इसका कारण यह था कि वे श्री जिनधर्म की-श्री वीरशासन की, श्री वीर के ही वंशजों द्वारा विडम्बना देखकर क्षुब्ध हो गये थे। उस समय के शिथिलाचारी भी दंभ प्रपंच और षड्यंत्र में होशियार थे । वे अपना प्रभाव जमाने और धर्मप्रिय साधुओं का प्रभाव घटाने, उन्हें तंग करने और अपनी दंभ-जाल में फंसाने की तिकड़म करते थे । इसीलिए तो आचार्यश्री ने लिखा कि-ऐसे कुशीलियों से और उनके पक्ष से दूर ही रहना, उन्हें उपदेश देना भी ठीक नहीं (गाथा १३१) आदि ।। अन्यथा उपदेशादि तो मिथ्यादृष्टियों को भी दिया जाता है फिर उन्हें उपदेश देने में क्या 1. श्री राजशेखरसूरिजी ने १३१ वी गाथा का अर्थ उपदेश देने के अर्थ में किया है। 148

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