Book Title: Vandaniya Avandaniya
Author(s): Nemichand Banthiya, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 155
________________ रजोहरणादि आजीविका एवं मानपान के कारण बन गये । उनके साधुवेश को देखकर साधारण लोग भ्रम में पड़ जाते हैं और इस विचार के चलते उन्हें सन्मान देते हैं कि यह तो जिनेश्वर प्रदत्त वेश है । इसकी अवगणना करना-जिनेश्वर की अवगणना करना है । उनका ऐसा विचार करना उचित नहीं है । समझदार एवं चतुर मनुष्य वेश के भुलावे में नहीं आते । मात्र वेश धारण कर लेने से ही कोई वंदनीय नहीं हो जाता । वेश होते हुए और संयमी जीवन होते हुए भी विपरीत श्रद्धा और धर्म विरुद्ध प्रचार के कारण पहले भी जमाली आदि निह्नव अवंदनीय हुए हैं, तब असंयमी सावध सेवी, परिग्रही और विपरीत आचार विचार वाले कुशीलिए किस प्रकार वंदनीय हो सकते हैं ? वे तो वेश की क्डिम्बना करने वाले हैं । अत एव उनका आदर सत्कार नहीं करना चाहिए । बालाणं हरिसजणणं के वि य धारंति वेसमण्णयरं । उन्भड पंडुरवसणाइरहियं चिय सुविहियाभासं ||१३७|| रंगिज्जइ मइलिज्जइ उवगरणाणि बाव्व गमणाणि | धारंति धम्ममाया-पडलाणि सुविहियभमत्थं ।।१३८।। जणचित्तग्गहणत्थं वक्खाणाइ करंति वेरग्गे । भासंति अत्तदोसा साहुत्ति जणावबोहटुं ।।१३९|| आयरिआ उवज्झायाणं दोसा भासंति कण्णजाहेणं । गाहिज्जइ जत्थ सुयं पमाइ दोसी त्तिं तं भणइ ||१४०|| ___ कुछ कुशीलिए बालजीवों को मोहने के लिए अन्य कई प्रकार का ऐसा वेश धारण करते हैं, जो उद्भट पंडुरवर्ण वाले वस्त्रादि से रहित और सुविहित मुनियों का आभास कराने वाला - 137

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