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है ।।१३७।।
वे उपकरणादि को रंगते हैं या मलिनता रहित करते हैं । वे बगुले की भांति धीरे-धीरे चलते हैं और सुविहित साधु होने का आभास कराने के लिए मायाचारिता पूर्वक धर्मदंभ करते हैं ।।१३८ ।। 1
जनता का मन आकर्षित करने के लिए वे वैराग्य रस पूर्ण व्याख्यान देते हैं और लोगों में उत्तम साधु कहलाने के लिए अपने आत्मदोष प्रकट करते हैं ।। १३९ ।।
जिससे श्रुतज्ञान ग्रहण किया जाता है, उसे यह प्रमादी है, यह ऐसा है, वैसा है दोषी है - ऐसा कहते हैं और आचार्य भी उपाध्याय के दोषों को गुप्त रूप से प्रकट करते हैं । । १४० ।।
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उपरोक्त गाथाओं में कुशीलियों की बकवृत्ति का परिचय दिया गया है। दुराचार के साथ दंभ का गठबंधन रहता है। इसमें सभी हथकंडे चलते हैं ।
गिण्हंति गहावंति य दव्वा नाणकोसवुड्ढिकए । दंसइ किरियाडोवं बाहिरओ बहियलोयाणं ||१४१ || ज्ञानकोष की वृद्धि करने के लिए धन ग्रहण करते कराते हैं और बाह्य क्रिया का दृश्य खड़ा करके बहिदृष्टि लोगों को दिखाते ( लुभाते ) हैं ।। १४१ ।।
ज्ञानभंडार, शास्त्रभंडार, पुस्तकालय, ग्रंथालय, ज्ञानाभ्यास कराने वाली संस्था, विद्यालय आदि के लिए वे मर्यादा हीन साधु, स्वयं प्रयत्न करके द्रव्य प्राप्त करते हैं और दूसरों से करवाते हैं।
1. गोचरी के लिए श्रावकों के घरों में घूमने का दंभ करके धर्मशाला में भक्तों के घर से स्वादिष्ट गरम गरम रसोई मंगवाकर भोजन कर लेते है । या धर्मशाला में नोकर के द्वारा गैस पर पुनः गरम करवाकर दूध चाय पी लेते है ।
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