________________
जम्हा नेव जिणिंदो सावज्जरओ संगथिसविभूसो । लोयप्पयारपक्खं कुणमाणो छंदवयमाणो ||१३४||
णो परवित्तीविवहारकारओ सो हविज्ज कइया वि | तम्हा कुसीललिंगं धम्मस्स विडंबणाहेऊ ||१३५|| इय जाणिऊण दक्खा कयावि न भणंति एस जिणवेसो । तद्दव्वलिंगमित्तं इसिज्झयमाई य वित्तिकए ||१३६।। __जिस कारण से जिनेश्वर भगवंत, सावद्य में रत नहीं है, परिग्रह की गांठ वाले नहीं, शरीरादि की विभूषा करने वाले नहीं, लोकप्रवाह अथवा लोकोपचार का पक्ष करने वाले नहीं और स्वच्छन्द वाणी व्यवहार युक्त नहीं है ।।१३४।।
वे कभी परवृत्ति से (दूसरों की इच्छानुसार) प्रवृत्ति करने वाले नहीं है, उसी कारण से कुशीललिंग-साधुवेश धर्म की विडम्बना का कारण है ।।१३५।। __ऐसा जानकर दक्ष मनुष्य, आजीविका के लिए रखे हुए ऋषिध्वज-रजोहरणादि मुनि के द्रव्य लिंग मात्र को-'यह जिन वेश या जिनेश्वरों का दिया हुआ वेश है'-ऐसा कभी नहीं कहते ।।१३६।।
आचार्यश्री कहते हैं कि यह कैसी विषमता है ? जिनेश्वर भगवंत तो निरवद्याचारी, निष्परिग्रही, निराडम्बरी हैं । वे लोकैषणा, स्वच्छन्दाचार और. पर के प्रभाव से रहित होते हैं, किन्तु उन्हीं का वेशधारण करने वाले ये साधु नामधारी व्यक्ति उल्टी ही चालें चल रहे हैं। इनकी प्रवृत्तियाँ सावध हैं । वे परिग्रही, आडम्बरी एवं विभूषा प्रिय हैं, वे लोक प्रवाह में बहते और स्वच्छन्द वाणी व्यवहार करते हैं । उनका साधुवेश और
136