Book Title: Vandaniya Avandaniya
Author(s): Nemichand Banthiya, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 152
________________ दिये हुए दुःखों को सहूँ और गर्भवास तथा नरक के दुःख भी कदाचित् भोगना पड़े, तो भोगू, परंतु जिनाज्ञा के लोपक पक्ष का साथी तो ठीक, पर अनुमोदक भी नहीं बनूं । मैं उससे पृथक् विरुद्ध ही रहूँ । वे उपदेश देते हैं कि भव्यो! यदि भयंकर कष्ट प्रास हो, तो भी तुम जिनेश्वर भगवंत के धर्म के ही अनुयायी रहो, जिनधर्म के ही पक्षकार रहो । जिनाज्ञा विराधक, लोपक एवं जिनधर्म की अवहेलना करने वाले समूह के साथी मत बनो, मत बनो, हर्गीज मत बनो। यह तुम्हारी आत्मा के लिए हितकर होगा । दिगम्बर जैन विद्धान् कविवर बुधजनजी ने भी अपने छह ढाले की अंतिम ढाल में कहा है कि भला नरक का वास, सहित समकित जे पाता । बुरे बने वह देव, नृपति मिथ्या मत माता ।। आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी भी यही कह गये हैं कि श्री जिन प्रवचन का अनुयायी-अनुरागी रहकर दुःख भोगना श्रेष्ठ है, किन्तु जिन प्रवचन के लोपक के साथ रहकर सुख भोगना भी नेष्ट-बुरा है। __केई भणंति मूढा, पासत्थाइजणस्स दंसणयं । जिण आसायणकरणं, भमंति तेणंतसंसारं ||१३३।। ___ कई मूढ़ लोग कहते हैं कि पासत्थादि कुसाधु भी दर्शनीय है। किन्तु वे यह नहीं समझते कि जिनेश्वर की आशातना करने वाला अनंत संसार में परिभ्रमण करता है ।।१३३।। उदय भाव की विचित्रता से कई लोग भ्रांत धारणा लिये फिरते हैं । वे कहते हैं शिथिलाचारी और दुराचारी भी दर्शनीय 134

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