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ऐसों को उपदेश अनुज्ञा भी नहीं
तित्थयराराहणपरेण सुयसंघभत्तिजुत्तेण । आणाभट्ठजणम्मि अणुसट्ठी सव्वहा देया ||१३१||
तीर्थकर की आराधना में तत्पर और श्रुत धर्म तथा संघ की भक्ति करने वाले जीवों के लिए योग्य है कि वे आज्ञा भ्रष्टजनों को अनुसष्ठी-उपदेश अनुज्ञा सर्वथा नहीं दे ।।१३१।।
तीर्थकरों की आज्ञा में तत्पर शास्त्र और संघ प्रतिभक्ति वान श्रावक-जिनाज्ञा से भ्रष्ट बने हुए लोकों को सर्व प्रकार से (जिस प्रकार शक्य हो उस प्रकार) हित शिक्षा देनी चाहिए । इस गाथा का अर्थ श्री राजशेखर सूरिजी ने संबोध प्रकरण में इस प्रकार किया है।
आचार्यश्री कहते हैं कि श्री जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा में तत्पर रहने वाले, श्रुत चारित्र धर्म एवं संघ भक्ति प्रेमी मनुष्यों को ऐसे कुशीलियों भ्रष्टाचारियों के साथ, किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहिए । उनके साथ धार्मिक संबंध भी नहीं रखना चाहिए । जब वे स्वयं धर्म का बाना पहनकर और धर्मी नाम धराकर भी धर्म-द्रोह कर रहे हैं, तो ऐसों के साथ रहना उन्हें उपदेश (देने की) अनुज्ञा देना भी उनके धर्म-द्रोह का अनुमोदक है । इसलिए ऐसे भ्रष्टों से तो सदा एवं सर्वथा बचकर ही रहना चाहिए । ऐसे लोग, संपर्क बढ़ाकर अन्य धर्मात्माओं को भ्रम में डालने, फुसलाने और बिगाड़ने की चेष्टा करते रहते हैं।
उपदेश तो मिथ्यादृष्टियों को भी दिया जा सकता है । उपदेश देने में कोई रुकावट नहीं है । आचार्यश्री का उद्देश्य उपदेश की मनाई का नहीं है ।
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