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अविहि अणुमोयणाए तेसिं पि य होइ वयलोवो || १२८||
आज्ञा का भंग होता हुआ देखकर भी जो मध्यस्थ होकर मौन रहते हैं, अविधि के अनुमोदक होने के कारण उनके व्रत का भी लोप होता है ।। १२८ ।।
चाहे साधु हो या साध्वी, श्रावक हो या श्राविका, जो जिनाज्ञा का भंग होता स्वयं देख-समझ रहे हैं, फिर भी अदेखाई (अन्देखा) करके उस ओर से आँखें मूंद लेते हैं अथवा मध्यस्थता का डोल करके चुप रहते हैं, वे भी उस अविधि एवं आज्ञा भंग के अनुमोदक हैं और इससे उनका व्रत भी दूषित होता है । जिस साधु साध्वी को आज्ञा भंग उत्सूत्र प्ररूपण अथवा व्रत भंग की जानकारी हो और वह उसका योग्य प्रतिकार नहीं करके तटस्थ रहे, तो माना जायगा कि वह न तो सुव्रतों - शुद्धाचार को उपादेय मानता है और न दुराचार को हेय मानता है । हेयोपादेय में तटस्थ रहना तो, धर्म और पाप में तटस्थ रहना है । ऐसी स्थिति में धर्म का अवरोध और अधर्म का फैलाव होता रहता है । जो धर्म प्रिय अथवा धर्म-पालक एवं रक्षक कहलाते हुए भी धर्मी नाम धराने वाले अपने संगी साथियों द्वारा होते हुए अधर्म प्रचार तथा अधर्माचरण को नहीं रोके और तटस्थ रहे, तो उसका धर्मीपन भी कैसे समझा जायगा ?
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गुंडे लोग, मां- बहिन की लाज लूटने लगे और पुत्र तथा भाई खड़ा देखता रहे, तो उसका पुत्र और भाई होना भी लज्जा जनक है । हमलावर पिता पर आक्रमण करे और पुत्र खड़ा देखता रहे, तो वह पुत्र संसार में मुंह दिखाने योग्य नहीं रहता । इसी प्रकार जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा का खुले रूप में उल्लंघन
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