Book Title: Vandaniya Avandaniya
Author(s): Nemichand Banthiya, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 128
________________ को दुराचारियों के समान बताने रूप मिथ्यात्व और सबसे बड़ा पाप श्रीजिनेश्वर भगवान् के उत्तम धर्म को क्षति पहुँचाने रूप है । कई सत्व-हीन उपासक दुराचारियों के दुराचार को जानते हुए भी उनके चरण चूमते हैं, कई उनके मिथ्या प्रचार को समझते हुए भी सभ्यता का खोटा प्रदर्शन करने के लिए उन्हें अपनी भक्ति अर्पण करते हैं, कई ऐसे भी हैं जो उन्हें मानते नहीं, वंदते नहीं, किन्तु लिखते समय अपनी अत्यंत नम्रता, परम सभ्यता का दांभिक प्रदर्शन करने के लिए उन्हें 'श्रद्धेय, आदरणीय, महात्मा' आदि विशेषण से शोभित करते हैं, यह सब पाप है । अपना मतभेद, विरोध एवं असहयोग स्पष्ट व्यक्त करना चाहिए । मन में कुछ दूसरा और वचने में परम विनम्रता-यह भुलावा है । यहाँ- 'वचनेसु किं दरिद्रता' की बात आगे आ सकती है, किन्तु वह अपनी सीमा तक ही उपयुक्त होती है । यदि उसका सीमातीत-असीम उपयोग हो, तो चोर, जार, कसाई आदि को भी- 'परमपूज्य, प्रातः स्मरणीय, श्रद्धेय, महात्मन्' आदि विशेषण देकर अपनी मधुरतमता का सर्वत्र प्रदर्शन करना चाहिए और आगमों में दुराचारियों को 'जहर के समान बतलाया' उसे गलत मानना चाहिए । किन्तु ऐसी बात नहीं है। अपने भावों को सही रूप में प्रकट करने के लिए और उनकी अनुपादेयता, अवंदनीयता बताने के लिए वैसे शब्दों का उपयोग करना अनुचित नहीं है । श्री हरिभद्रसूरिजी कहते हैं कि दुराचारी साधुवेशधारी पिशाचों को वंदनादि करना महापाप है। यह कहना सर्वथा उचित है । क्योंकि वे पिशाच हमारे धर्मरूपी परम धन के भक्षक हैं । आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी जैसे प्रकाण्ड विद्धान् भी जिन्हें 110 -

Loading...

Page Navigation
1 ... 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172