________________
मोक्ष रूपी महल के स्तंभ के समान हैं । जो जिनेश्वर की आज्ञा से बाहर चलने वाला समूह है वह तो सांप के समान भयंकर है ।।१२२।।
इस गाथा में आचार्यश्री ने संघ के दोनों रूपों को स्पष्ट रूप से बता दिया है । एक संघ है-रक्षक, पोषक, सुख समृद्धि का प्रदाता-ऐसे माता पिता के समान । वह उन्नति के परमोन्नत प्रासाद पर पहुँचाने वाला है। दूसरा 'संघ है विषधर सांप के समान भयंकर। अधोगति के गड्ढे में गिराने वाला ।
जिस समूह में जिनाज्ञानुकूल ज्ञान, दर्शन, चारित्र में श्रद्धा हो, जिसकी दृष्टि मोक्षमार्ग पर हो,
जिसमें रहे हुए साधु-साध्वी, जिनाज्ञा की आराधना में प्रयत्नशील हों, वह संघ, माता-पिता के समान हितकारी है ।
उसके आश्रय में रहा हुआ जीव, माता-पिता की गोद में रहे हुए बालक के समान पूर्णरूप से सुरक्षित एवं सभी प्रकार की उत्तम सामग्री से संपन्न है । वह शाश्वत सुख का स्वामी हो सकता है । किन्तु दुराचारियों के संघ में रहे हुए जीवों में पाप एवं मिथ्यात्व का विष रहा हुआ है।
क्या स्वतंत्र विचारकों, स्वच्छन्दाचारियों, मिथ्या प्रचारकों, लौकिक दृष्टिवालों और बेलगाम घोड़े की तरह उन्मार्गियों का संघ भी कभी हितकारी हो सकता है ?
ऐसे साँप के समान भयंकर संघ से अनिष्ट ही हो सकता है।
एक संघ है-अमृतकुंभ के समान, तो दूसरा है-विषकुंभ के समान । भले ही उस पर मीठी बातों और आकर्षक शब्दों का सुंदर ढक्कन लगा दिया हो, परंतु उसमें भरा तो विष ही है ।
119